मौजूद था पर आसमां में, चांद कुछ नाराज था
बेशक मेरे मेहबूब के ही, नूर का आगाज था
क्या करू तारीफ उनकी,
हर अदा थी शायरी
शायरीमें कातिलाना,
क्या
गजब अंदाज था
जन्नत से उतरी हूर सी थी, क्या करू लफ़्जोबयां
नर्गिसी मासूम चेहरा, हुस्न का सरताज था
उनकी वो संजीदगी में, नर्म सा संगीत था
खिलखिलाना भी तो उनका, जैसे कोई साज था
शाम की तनहाइयों में दर्द का एहसास था
दर्द ना उनका कभी हमदर्द का मोहताज था
देखी है आंखों में उनकी, दर्द की परछाइयाँ
जख्म क्या था, दर्द क्या था, ये छुपा इक राज था
चंद यादे छोडकर, चुपचाप वो रुखसत हुए
राज सीने में दफन और बस खुदा हमराज था
जयश्री अंबासकर
ये शायरी आप मेरी आवाज में नीचे दी हुई लिंक पर सुन सकते है
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