सुनते सुनाते बतियाती रातें
हौले से होती मदहोश रातें
हां चांद भी तो बाहों में था तब
होती थी कितनी धनवान रातें
दिन भी खुशी से, थे जल्द ढलते
तुम्हारे लिये थी बेचैन रातें
होती कहां थी आजाद रातें
लेती थी लेकिन इल्जाम रातें
जीये जा रहा था तुम्हें गुनगुनाते
हुई जा रही थी कुर्बान रातें
गुमसुम हुई कब वो प्यारी सी बातें
लगने लगी अब ये अनजान रातें
लगती थी हमदर्द खामोश रातें
अब क्यूं हुई है बेदर्द रातें
✍️जयश्री अंबासकर
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